अनहैप्पी मज़दूरों को हैप्पी मज़दूर दिवस :- राजा राम यादव


(मज़दूर दिवस पर : क्षमायाचना सहित)

     सुनने में अच्छा लगता है नाम, आप्रवासी मज़दूर! कुछ देर तक इज्ज़त ढँकी रहती है। परन्तु इस श्रेणी में ज्यादातर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग ही आते हैं। इन्हें प्रायः 'भैया/भइया/भय्या' कहकर बुलाया जाता है। यह शब्द इन्हें सम्मान देने के लिए कम और इनकी असली औक़ात बताने के लिए ज़्यादा प्रयोग किया जाता है। सीधे-सादे होते हैं ये। भोले। मासूम। ये मज़दूर हैं। मज़बूर हैं। लेकिन बेईमान नहीं हैं। धोखेबाज नहीं हैं। मक्कार नहीं हैं। धूर्त नहीं हैं। चालाक नहीं हैं। छलावे की राजनीति और कुम्भकर्णी सरकारों से आश्वासन के अतिरिक्त आज तक कुछ नहीं मिला इन्हें।  

       एक अलग किस्म का भी बिहारी है। इनकी अलग फितरत होती है। ये जब बड़े हो जाते हैं तो अपनी जड़ से उखड़ जाते हैं। जहाँ के पैसे से पढ़ाई की, उसे भूल जाते हैं। जहाँ की पाई-पाई चूस कर कामयाबी हासिल की, उस कामयाबी की कमाई कहीं और खर्चते हैं। अपनी अलग दुनिया बसा लेते हैं। बिहार से अलग। अपने आप को बिहारी कहने-कहलाने में भी खिसियाते हैं। जिस मां-बाप ने दांत निपोड़कर, पेट काटकर पढ़ाया-लिखाया उन्हें भूल जाते हैं। बस कभी-कभार छठ में आ जाते हैं। पिकनिक मनाने! यहां की आबोहवा के परखच्चे उड़ाने! 

     'भैया' कल से काम पर नहीं आना!! कैसा लगा आपको?? बुरा लगा न?? मुझको भी अच्छा नहीं लगा। है यह कटु, पर सत्य है। इस एक वाक्य से किसी के सपनों पर पानी, किस कदर फिरता है, उसका अंदाज़ा आप एयर-कंडीशन बंगले में बैठकर नहीं लगा सकते हैं। इस टका-सा जवाब से कितने दुधमुंहों के हलक का निबाला छिन जाता है इसका अनुमान आप, हाई-एंड कारों की पिछली सीट पर बैठकर नहीं कर सकते हैं। जब ये दूसरे राज्यों में जाकर उनकी तरक्की में योगदान करते हैं तब तो इन्हें अधिक मज़दूरी नहीं मिलती है! या अलग से कोई पारितोषिक नहीं मिलता है! फिर संकट की घड़ी में इन्हें बैरंग अपने गांव का रास्ता दिखा देना कहाँ तक मुनासिब है? और हाँ, किस गड़ी-गगरी की तलाश में ये गांव की ओर दौड़ लगाने को आतुर हैं?? आख़िर वो गगरी कहाँ ग़ायब थी जब ये, उन्हें छोड़कर जा रहे थे, जिसके लिए आज ये व्याकुल हैं? जिनकी ख़ातिर आपने इतना कुछ किया वहां से आपको मिला क्या? दुत्कार! अपमान! और क्या!! जो आपको इतना पैसा भी नहीं दे सकता कि अपनी कमाई और बचत से किसी आफत-विपत्ति की घड़ी में आप दो-चार माह बैठकर गुजारा नहीं कर सकते, उसका भला क्या मतलब!!  

         आख़िर किस पैतृक पूंजी के प्रेम में आप अपने गांव को दौड़ पड़े हैं? क्या वो खज़ाना उस समय खाली था जिस समय आप इसे छोड़कर जा रहे थे? दरअसल आपको अपने गांव में खेतीबाड़ी करने या अपने यहां मजूरी करने में शर्म आती है! भले ही दूसरी जगह जाकर गाली सुन लोगे, रिक्शा टान लोगे लेकिन अपने गांव में मजूरी नहीं करोगे। आप जब तक 'पर-देश' में रिक्शा टान रहे होते हो तब तक तो बिहारी होते हो लेकिन जैसे ही गांव का रुख किए - आप बाभन-भूमिहार बन जाते हो, कोइरी-कुम्हार बन जाते हो, यादव-गुआर बन जाते हो, डोम-चमार बन जाते हो, धोबी-कहार बन जाते हो, तेली-कलवार बन जाते हो। और न जाने क्या-क्या!! उस समय आपको शर्म नहीं आती है जिस समय आप जात पूछकर वोट देते हो? जानते नहीं कि साधुओं और असाधुओं की कोई जात नहीं होती। विद्वानों-बुद्धिमानों का कोई खेमा नहीं होता। गुंडे-बदमाशों का कोई मज़हब नहीं होता। ऐसा लगता है जैसे आप अपना प्रतिनिधि नहीं बल्कि दामाद या ससुर ढूंढ रहे हो! सिर्फ हथौड़े का ही दोष नहीं है कि उसने लोहे को क्यों कुचला?? लोहे का भी दोष है कि आख़िर वह हथौड़े के नीचे आया क्यों??

        सोचना पड़ेगा। हमें! आपको!! और इन सभी बुद्धुओं को!! याद रखो जब तक प्रोफेसर, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर और सारे शिक्षित-संवेदनशील लोग अपने ऊपर शासन करने के लिए, सत्ता के लोभी-लालचियों, गुंडे-बदमाशों, चोर-उचक्कों, लुच्चे-लफंगों, अनपढ़-गंवारों में अपना सगा-संबंध देख कर वोट करते रहोगे तुम्हारी हालत जस की तस बनी रहेगी। कोई नहीं उबार सकता तुम्हें! बाल्मीकि, जनक, याज्ञवल्य, चंद्रगुप्त, अशोक, दिनकर, बेनीपुरी, रेणु सरीखे महान आत्माओं पर घमंड करते रहो! वीर कुंवर की वीरता का बखान सुनाते रहो! दादाजी के पास हाथी था, अब तुम्हारे पास सिर्फ़ रस्सी बची है, उसे संग्रहालयों में सजाते रहो! अपने शानदार इतिहास को सीने से सटाकर इतराते रहो! कृष्ण और राम की आरतियां उतारते रहो! उनकी शिक्षा को ग्रहण मत करो! रामत्व की मर्यादा और कृष्णत्व की कर्मनिष्ठता को धारण मत करो! तुम्हारा कुछ भी भला नहीं हो सकता!!

      सारी दुनिया को मैथेमैटिक्स सिखानेवालों, तुम्हारा मैथेमेटिक्स उलझा ही रहेगा! समूचे संसार को अर्थशास्त्र समझानेवालों तुम्हारा अर्थशास्त्र बिगड़ा ही रहेगा! हर साल सैकड़ों आईआईटियन तैयार करनेवालों, अगले और 30 वर्षों तक पटना पुल की बदहाली तुम्हारी छातियों पर थूकती रहेगी!! बहुत बुरा लगा न? और बुरा मानो। कौन बेवकूफ़ तुम्हारी प्रशंसा करने के लिए लिख रहा है? मान जाओ बुरा। दुगुना बुरा मान जाओ। मुझे कौन-सा अच्छा लग रहा है? जिस प्रांत के वाशिंदों का अपनी मिट्टी से प्रेम नहीं, उसे देश का कोई भी दूसरा प्रांत यथोचित सम्मान नहीं दे सकता। कब समझोगे? अपने लाल-लाल गाल फुलाए, लंबी-चौड़ी गाड़ियों में सरपट दौड़ते रहो। कभी नहीं पहुंच पाओगे अपनी असली मंजिल तक!!

         शिक्षण संस्थानों के उद्घाटन में उन्हें आमंत्रित करोगे जिन्हें शिक्षा से दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं है। स्कूल गया नहीं। किताबों को हाथ तक नहीं लगाया। उसे बुलाओगे। माला पहनाने! तुम 26 जनवरी और 15 अगस्त के अवसर पर झंडा फहराने और भाषण झाड़ने के लिए उसे बुलाओगे जिसे ख़ुद नहीं मालूम कि आख़िर उसे बुलाया किस लिए गया है! उसकी नीति नहीं समझोगे! उसकी नीयत नहीं जानोगे! बस नेता मान लोगे! वाह!! आर्यभट्ट की संतानें कहलाने वालों, ज्ञान की भीख मांगते रहो! करते रहो पैदा। मज़दूरों की फौज! भिखमंगों का झुंड! ढूंढते रहो रोज़गार! रोज़गार पैदा करनेवाला मत बनो! कश्मीर से धारा 370 हट गई है। वहां ढाबा मत खोलना! जब दूसरा कोई ढाबा खोले तब वहां जाना। नौकरी मांगने। बर्तन माँजने की!! बहुत कुछ लिखने का मन कर रहा है। हिम्मत है सुनने की? नहीं न!!

       अगर है हिम्मत तो इस बार रिश्ता नहीं  योग्यता देखकर वोट करना। कोई वोट मांगने आए तो पूछना कि वह ख़ुद कितना पढा-लिखा है? क्या-क्या योजनाएं हैं उसके पास? रोड-मैप क्या है उसके लिए? तुम्हारे यहां विद्यालय, महाविद्यालय कब बनेगा? अस्पताल, मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, विश्वविद्यालय कब खुलेगा? रिसर्च सेंटर कब स्थापित होगा? कल-कारखाने कब लगेंगे? एयरफील्ड, हैलीपैड कब बनेगा? एयरबेस, डिपो, प्रोसेसिंग सेंटर कब बनेंगे? मैं भी कैसा मूर्ख हूँ, तुम्हारे जैसे कुम्भकर्णों को जगाने के चक्कर में अपनी नींद ख़राब कर रहा हूँ। तुम्हारे भीतर का हनुमान सोया है भाई! सोने दो मुझे भी। समझ आ जाए तो आवाज़ लगा देना!! 

   और हाँ, कहा-सुना माफ़ करना 'भैया'!!

!!अनहैप्पी मज़दूरों को हैप्पी मज़दूर दिवस!!
- - -
डॉ. राजा राम यादव
समस्तीपुर (बिहार)

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